Tag Archives: व्यंग्य

फिसल गये हैं मोटूमल

फिसल गये हैं मोटूमल मोटा पेट करे थल-थल दिन निकले से मुँह चलता है जैसे चलती चक्की नहीं पढ़ाई, नहीं लिखाई ये हैं बक्की-झक्की चाट, मलाई, कुल्फी देखी जायें वहीँ मचल (नोट: ये कविता वर्षों नहीं बल्कि दशकों पहले कभी … Continue reading

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ज़िंदगी जी नहीं बर्दाश्त की

ज़िंदगी जी नहीं बर्दाश्त की ऊसर में काश्त की !

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नेताओं द्वारा शहीदों का शोषण और शहीद होने की व्यर्थता

कंधे पर लदे बेताल ने विक्रमादित्य से कहा, राजन, मेरे एक प्रश्न का उत्तर दो अन्यथा तुम्हारा सर धड़ से अलग हो जायेगा, तुम्हारा अस्तित्व हमेशा के लिये खो जायेगा

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आसमाँ पे है खुदा और ज़मीं पे हम

आसमाँ पे है खुदा और ज़मीं पे हम आजकल वो इस तरफ देखता है कम आजकल किसी को वो टोकता नहीं, चाहे कुछ भी कीजिये रोकता नहीं, हो रही है लूटमार, फट रहे हैं बम आसमाँ पे है खुदा ….

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तथाकथित सभ्यता / So-called Civilization

हुए इस कदर मुहज़्ज़ब, कभी घर का मुँह न देखा कटी उम्र होटलों में, मरे अस्पताल जाकर —- * शब्दार्थ मुहज़्ज़ब = सभ्य, शिष्ट, civilized —- शेर: अकबर इलाहाबादी डॉ. ज़रीना सानी और डॉ. विनय वाईकर की पुस्तक “आईना-ए-ग़ज़ल” (पाँचवां संशोधित … Continue reading

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