ज़िंदगी जी नहीं बर्दाश्त की

ज़िंदगी
जी नहीं
बर्दाश्त की
ऊसर में काश्त की !
कितनी है बदतमीज़
बिन बोये उग आईं और – और चीज़
बो करके हाय रक्त – बीज,
कैसी शुरुआत की !
छत्त – छत्त मेघ – रास
बरस रही खेतों के
आस – पास प्यास
होठों तक
बजता अहसास,
हद है उत्पात की !
जैसे खुद हों सलीम
ताक रहे मेढ़ों से
आक, ढाक, नीम
जीभों से लेप दी अफ़ीम,
जब भी दरख्वास्त की !
आँखों में आसमान
कहाँ गये इस बारी
दीवारी कान
साँस – साँस हो गई
लगान,
क्या सोचें बाद की !
ज़िंदगी
जी नहीं
बर्दाश्त की
ऊसर में काश्त की !

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रचना: अज्ञात
स्रोत: ओशो (पुस्तक: “सपना यह संसार”, प्रवचन 6, संस्करण 1980)

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ओशो टाइम्स, फरवरी 1996, पृष्ठ 7 से साभार उद्धृत

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