कंधे पर लदे बेताल ने विक्रमादित्य से कहा,
राजन, मेरे एक प्रश्न का उत्तर दो
अन्यथा तुम्हारा सर धड़ से अलग हो जायेगा,
तुम्हारा अस्तित्व हमेशा के लिये खो जायेगा
आज मैंने अख़बार में पढ़ा,
एक महिला,
जिसका पति देवता होकर आदमी की तरह जिया
इसी अपराध पर किसी ने उसे सम्मान नहीं दिया,
गले में सदाचार का तावीज़ लटकता रहा,
इसीलिये मास्टर बन कर दर-ब-दर भटकता रहा
हर साल करता रहा, गायत्री का जाप,
हर साल बनता रहा, लड़कियों का बाप
इस साल बजरंग का पांव छुआ,
तो उसकी पत्नी को पत्थर का टुकड़ा हुआ
इसका क्या कारण है?
विक्रमादित्य चौंका, बीड़ी का ज़ोरदार कश लिया,
और उसके प्रश्न का उत्तर यूं दिया :
सुन बेताल,
उस औरत के पूर्वजन्म का हाल
वो औरत एक शहीद की माँ थी,
देशभक्ति की परंपरा उसके यहाँ थी
जीवन भर सैनिकों की वर्दियां सींती रही,
बेटे को शहीद देखने की तमन्ना में जीती रही
ख़ून को देती रही पसीने का कर्ज़,
बढ़ता रहा देशभक्ति का मर्ज़
मेघदूत युद्ध का संदेश लाया,
संगीनों ने आषाढ़ गाया
बेटा सरहदों पर सर बो गया,
इतिहास की ग़ुमनाम वादियों में
हमेशा के लिये खो गया
माँ अपने सौभाग्य पर मुस्कराती रही,
बेटे की तस्वीर को फ़ौज़ी लिवास पहनाती रही
रोज़ पढ़ती रही अख़बार,
ढूंढती रही, बेटे के शहीद होने का समाचार
नेताओं की आदमकद तस्वीरें हंसंती रहीं
इतिहास में शासक को जगह मिलती है,
शहीदों को नहीं
जो इतिहास के पन्ने सींते हैं,
वो इतिहास पर नहीं, सुई की नोंक पर जीते हैं
भूगोल होता है जिनके रक्त से रंगीन,
उनके बच्चों को मयस्सर नहीं दो ग़ज ज़मीन
शहादत कहाँ तक अपना लहू पीती रही?
केवल शहीद को जन्म देने के लिये जीती रही?
स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया उनका नाम,
जो बेचते रहे शहीदों का ख़ून,
बढ़ाते रहे चीज़ों के दाम
इत्र में नहाते रहे,
शहीदों के ख़ून की खुशबू छुपाते रहे
कुर्सी-पुत्रों ने बड़े कष्ट झेले,
शहीदों की लाशें सरहदों पर पड़ी रही नंगीं,
और इनके बंगलों पर लगे रहे मेले
वो उधर कफ़न को तरसते रहे,
इन पर ग़ुलाबों के फूल बरसते रहे
पूरे दो मिनट तक खड़े रहे मौन,
„पी.ए.“ से पूछते रहे: मर गया कौन?
„पी.ए.“ बोला, मुझसे पूछते हैं आप?
अरे इसी दिन तो मरे थे आपके बाप !
हम तो उन्हीं का मातम मना रहे हैं,
लगे हाथ शहीदों को भी निपटा रहे हैं
आप भी आँसुओं का “रिज़र्व-स्टॉक” निकालिये,
एक शहीद-स्मारक की घोषणा कर डालिये
आपकी बिल्डिंग अधूरी पड़ी है,
जनता चंदा लेकर खड़ी है
कहिये, क्या इरादा है आपका?
शहीद मर के भी होता है सवा लाख का
सिर्फ़ कहने को समाधि में सोता है
वरना शताब्दियों तक हमारा बोझ ढोता है
आज्ञा दीजिये, किस शहीद को जगाऊँ?
या, अपनी फ़ाइलों में एक नया शहीद बनाऊँ?
जिसका बलिदान हमारे लिये चंदा उगाये
और हर चुनाव में “स्टैच्यू” बन कर खडा हो जाये
तो सुन बेताल, आगे का हाल
शहीद स्मारक के लिये किये गये चंदे
मगर आसमान से उतरे हुये ईश्वर के ये बंदे
चंदे की थैलियां भी ले गये,
शिलान्यास का खाली पत्थर दे गये
माँ जिसे छाती से लगाकर सो गयी
खुद शहीद का स्मारक हो गयी
ममता ने उसी का बदला लिया है
सीमा पर लड़ने के लिये शहीद नहीं,
शिलान्यास का पत्थर दिया है!
रचना : अज्ञात
स्रोत : ओशो रजनीश के एक प्रवचन से साभार उद्धृत
Source: http://www.india-world.net/op-ed/issues/shaheed.html
This excellent, Hindi-language satire “SHAHEED” (English: Martyr) depicts in a telling manner the pathetic situation, in which innocent people are sometimes (or rather often?) lured into fighting for dogmas, ideologies and other supposedly “noble” causes. The concept of “martyrdom” is regularly misused by vested (political, communal and pseudo-religious) interests world-wide for own petty goals and ambitions. Newspapers are so full of such reports so that any person willing to see this bitter truth can observe it without much trouble.
It is certainly not to deny that in certain instances there might actually be a need for patriotic duty and/or sacrifice. But any objective study will show that such a situation does not occur as regularly as the ever-present call for “SHAHADAT” (martyrdom) in the name of hundred thousands (when not millions) of causes would like to make us believe.