पापी दिल

मस्जिद तो बना दी शब भर में, ईमाँ की हरारत वालों ने
दिल अपना पुराना पापी है, बरसों में नमाज़ी हो न सका

शेर: इक़बाल

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अब तेरा इंतज़ार कौन करे…

सुरमई रात ढलती जाती है
रूह ग़म से पिघलती जाती है

तेरी ज़ुल्फ़ों से प्यार कौन करे
अब तेरा इंतज़ार कौन करे

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सुबह का इंतज़ार कौन करे…

सुरमई रात है, सितारे हैं
आज दोनों जहाँ हमारे हैं
सुबह का इंतज़ार कौन करे..

ये रुत ये समाँ मिले न मिले
आरज़ू का चमन खिले न खिले
वक़्त का ऐतबार कौन करे…

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सावन में आल्हा-पाठ : सेना के कूच का वर्णन

बुंदेलखंड में सावन के महीने में बरसात की रिमझिम के बीच “आल्हा” गाने का प्रचलन है। वीर-रस के इस काव्य में महोबा के चंदेल शासकों और उनके बनाफर सामंतों आल्हा और ऊदल की शौर्य गाथाओं का वर्णन है। सोचा इस अवसर पर क्यों न उनके वीर-रस की एक झलक अपने ब्लॉग पर उपलब्ध कराई जाये। प्रस्तुत ज़िक्र आल्हा, ऊदल और बाकी भाइयों के द्वारा चंदेल राजा परिमाल (परिमर्दन देव) की सहमति से नर्मदा नदी के किनारे स्थित माड़ौ (संभवतः वर्तमान माण्डू) पर अपने पिता की ह्त्या का बदला लेने के लिये किये गये आक्रमण का है।

Statue of Udal in Mahoba (source: Wikimedia)

Statue of Udal in Mahoba (source: Wikimedia)

कहानी के अनुसार माड़ौ के बघेल वंशीय राजकुमार करिया (राजा जम्बे का पुत्र) ने एक बार रात के अँधेरे में महोबा के सीमान्त कस्बे दशहरि पुरवा पर चढ़ाई करके, अपनी एक पिछली पराजय के अपमान का बदला चुकाने के लिये, महलों में लूट-पाट कराई थी और साथ ही आल्हा-ऊदल के पिता (देशराज) और चाचा (बच्छराज) की हत्या कर दी थी और उनकी लाश ले जाकर पत्थर के कोल्हू में पेर दी थी, और सर काट कर बरगद पर लटका दिए थे। उस समय आल्हा की उम्र मात्र ५ वर्ष थी, जबकि ऊदल माँ के गर्भ में थे। चचेरे भाई मलखान ३ वर्ष के थे। बड़े होने पर जब ऊदल को इस घटना की जानकारी हुई तो उन्होंने संकल्प लिया कि वह बाप की मौत का बदला लेंगे। उस समय उनकी उम्र कथानुसार महज १२ वर्ष थी।

बरस अठारह के आल्हा भये, औ सोलह के भये मलखान
लगी बारहीं जब ऊदल की, तब माड़ौ पर हन्यो निशान

आल्हा-खण्ड में दिये गये वर्णन के अनुसार जब ऊदल (उदयसिंह) को अपनी माँ से अपने पिता की हत्या और महलों में हुई लूट का पता चलता है, तो:

जैसे करिया थर में बदले, औ ललकारे बाघ गुर्राय
तड़पा ऊदल शीश महल में, औ माता से कही सुनाय
खोज मिटा दूँ मैं माड़ौ की, तो तेरा पुत्र उदयसिंह राय
पिता जिन्हों के ऐसे मर गये, उन के जीवे को धिक्कार
तुम तो माता घर में बैठो, मेरी पूजि देव तलवार
काटि खोपड़ी लूँ जम्बे की, डारूँ मारि करिंगा राय
बदला ले लेउँ जब दाऊ का, तब छाती का डाहि बुताय

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मेरे साथी ख़ाली जाम…

महफ़िल से उठ जाने वालो, तुम लोगों पर क्या इल्ज़ाम
तुम आबाद घरों के वासी, मैं आवारा और बदनाम
मेरे साथी ख़ाली जाम….

दो दिन तुमने प्यार जताया, दो दिन तुमसे मेल रहा
अच्छा खासा वक़्त कटा, और अच्छा खासा खेल रहा
अब उस खेल का ज़िक्र ही कैसा, वक़्त कटा और खेल तमाम
मेरे साथी ख़ाली जाम….

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