सावन में आल्हा-पाठ : सेना के कूच का वर्णन

बुंदेलखंड में सावन के महीने में बरसात की रिमझिम के बीच “आल्हा” गाने का प्रचलन है। वीर-रस के इस काव्य में महोबा के चंदेल शासकों और उनके बनाफर सामंतों आल्हा और ऊदल की शौर्य गाथाओं का वर्णन है। सोचा इस अवसर पर क्यों न उनके वीर-रस की एक झलक अपने ब्लॉग पर उपलब्ध कराई जाये। प्रस्तुत ज़िक्र आल्हा, ऊदल और बाकी भाइयों के द्वारा चंदेल राजा परिमाल (परिमर्दन देव) की सहमति से नर्मदा नदी के किनारे स्थित माड़ौ (संभवतः वर्तमान माण्डू) पर अपने पिता की ह्त्या का बदला लेने के लिये किये गये आक्रमण का है।

Statue of Udal in Mahoba (source: Wikimedia)

Statue of Udal in Mahoba (source: Wikimedia)

कहानी के अनुसार माड़ौ के बघेल वंशीय राजकुमार करिया (राजा जम्बे का पुत्र) ने एक बार रात के अँधेरे में महोबा के सीमान्त कस्बे दशहरि पुरवा पर चढ़ाई करके, अपनी एक पिछली पराजय के अपमान का बदला चुकाने के लिये, महलों में लूट-पाट कराई थी और साथ ही आल्हा-ऊदल के पिता (देशराज) और चाचा (बच्छराज) की हत्या कर दी थी और उनकी लाश ले जाकर पत्थर के कोल्हू में पेर दी थी, और सर काट कर बरगद पर लटका दिए थे। उस समय आल्हा की उम्र मात्र ५ वर्ष थी, जबकि ऊदल माँ के गर्भ में थे। चचेरे भाई मलखान ३ वर्ष के थे। बड़े होने पर जब ऊदल को इस घटना की जानकारी हुई तो उन्होंने संकल्प लिया कि वह बाप की मौत का बदला लेंगे। उस समय उनकी उम्र कथानुसार महज १२ वर्ष थी।

बरस अठारह के आल्हा भये, औ सोलह के भये मलखान
लगी बारहीं जब ऊदल की, तब माड़ौ पर हन्यो निशान

आल्हा-खण्ड में दिये गये वर्णन के अनुसार जब ऊदल (उदयसिंह) को अपनी माँ से अपने पिता की हत्या और महलों में हुई लूट का पता चलता है, तो:

जैसे करिया थर में बदले, औ ललकारे बाघ गुर्राय
तड़पा ऊदल शीश महल में, औ माता से कही सुनाय
खोज मिटा दूँ मैं माड़ौ की, तो तेरा पुत्र उदयसिंह राय
पिता जिन्हों के ऐसे मर गये, उन के जीवे को धिक्कार
तुम तो माता घर में बैठो, मेरी पूजि देव तलवार
काटि खोपड़ी लूँ जम्बे की, डारूँ मारि करिंगा राय
बदला ले लेउँ जब दाऊ का, तब छाती का डाहि बुताय

तत्कालीन राजपूती प्रथा का पता उनकी माता के द्वारा दिए गए वर्णन से भी चलता है। जब मामा माहिल के द्वारा भड़काये गए ऊदल को कोई भी उनके पिता की मृत्यु का राज़ बताने को तैयार नहीं होता है, तो वे अंत में अपनी माँ से पूछते हैं। माँ भी पहले उनकी छोटी अवस्था समझकर टालने की कोशिश करती हैं।

सुनि के बातें ये ऊदल की, माता बोली बात बनाय
जो कोई पैदा भा दुनिया में, सबको लिया काल ने खाय
अब क्या याद करो दाऊ को, उनको लीन्हो काल चबाय

परन्तु बाद में बेटे की जिद पर उन्हें बताना ही पड़ता है। आल्हा-खण्ड कहता है :

भर ली कौली तब ऊदन की, रो-रो कहा दिवलदे माय
काह बताऊँ तुमसे बेटा, मेरो फटा कलेजा जाय
बरस पांच के नुनि आल्हा थे, तीन बरस का मलखे भाय
गर्भवास में तुम थे बेटा, जा दिन चढ़ा करिंगा राय
आधी रात के अब अम्बल में, दशहरि पुरवा लिया घिराय
सोवत मारेव बच्छराज को, फिर जा बाँधा बाप तुम्हार
लूट कराई रनवासों में, गले से ले गया हार उतार
हाथी-घोड़ा हार नौलखा, सो ले गया करिंगा राय
बाँधि के मुश्कें तेरे बाप की, माड़ौ कूच गया करवाय
पत्थर कोल्हू दुश्मन घर में, तामें लाश पिराई जाय
काटि खोपरी तेरे बाप की, ठठरी बुर्ज दई टँगवाय
बारी उमर में रँड़िया कर दी, जो जम्बे का राजकुमार
सुमिरन कर के नारायन का, हमने कीन्हा कौल-करार
जा दिन लड़िका समरथ हुइ हैं, बदला लेयँ बाप के दाँय
बिछियाँ-चुड़ियाँ उस दिन उतरैं, जा दिन मरै करिंगा राय
तब की रँड़िया हम बैठी हैं, बेटा दीन्हा हाल बताय

अर्थात माता ने उस समय की सती प्रथा को पूरी तरह ताक पर रखते हुये, खुद को विधवा रूप में भी नहीं बदला, बल्कि संकल्प लिया कि जब बच्चे बड़े हो जायेंगे तो अपने बाप की मौत का बदला लेंगे, और वह स्वयं अपने सुहागिन होने के प्रतीक चिन्ह बिछिया और चूड़ियाँ तब उतारेंगी, जब उनके पति का हत्यारा करिया (करिंगा राय) मारा जाएगा। उस ज़माने में शान-इज़्ज़त और बदला लेने की जो प्रथा थी, और जिससे राजपूत राजाओं का आपसी झगड़ों में उलझ करअंत में विनाश ही हुआ और विदेशी शासकों का भारत पर राज्य भी कमोबेश इन्ही कमज़ोरियों की वजह से स्थापित हुआ, उसका पता आल्हा-खण्ड की माड़ौ की लड़ाई के प्रारम्भ की इन पंक्तियों से चलता है।

साखे छूट गये सुमिरन के, झगड़ा सुनो नरेशन क्यार
गया न कीन्हीं जिन कलियुग में, काशी घोड़ा दान न दीन
हाँकि के बैरी जिन मारा न, नाहक जनम जगत में लीन

फिर जब ऊदल ने बारह वर्ष की उम्र में ही बाप की हत्या का बदला लेने के ऐलान कर दिया, तो माता परेशान हो गईं और ऊदल को समझाया कि माड़ौ महोबा के मुकाबले ज़्यादा शक्तिशाली है और ऊदल अभी बहुत छोटा है:

सुनि के बातें बघ ऊदन की, रोवन लगी दिवलदे माय
बारह टुकड़ी का पर्वत है, जँह पर बसै करिंगा राय
गज कैंची का किला बना है, गोला लगै चीप हुइ जाय
कठिन लड़ाई गढ़ माड़ौ है, बदला मिलै सहज में नाय
बारी उमर के तुम बालक हो, ओंठन बहै दूध की धार
मरम सिरोही की जानौ ना, कौने घाट बजै तलवार
मारे जैहो जो माड़ौ में, माता बिलखि-बिलखि मर जाय

माता द्वारा इस तरह से भय व्यक्त करने पर ऊदल, तत्कालीन सामाजिक रीतियों के हिसाब से, जवाब देते हैं कि क्षत्रिय का तो धर्म ही इज़्ज़त और शान के लिये लड़ना है। आल्हा-खण्ड की प्रसिद्ध पंक्तियाँ हैं :

ता दम ऊदल बोलन लागे, ऐसी बात कहो न माय
बारह बरस तक कुत्ता जीवे, और दस-ग्यारह जिए सियार
बरस अठारह क्षत्री जीवे, आगे जीवे को धिक्कार
कहाँ कोठरियाँ हैं सोने की, जँह हम रखिबे प्राण छिपाय
निश्चय मरना है दुनिया में, जा दिन काल पहूँचे आय

इसके बाद कहानी बढ़ती है, और अंत निष्कर्ष यह होता है कि चंदेल राजा परिमाल माड़ौ पर आक्रमण के लिए तैयार हो जाते हैं। सेनायें तैयार किये जाने का हुक्म ज़ारी किया जाता है, और इस युद्ध से आल्हा-ऊदल और उनकी पीढ़ी के अन्य शूर-वीरों (जैसे मलखान, ढेबा, ब्रम्हा) की अनेकों लड़ाइयों का सिलसिला प्रारम्भ होता है। प्रस्तुत है इस लेख के मूल उद्देश्य की कड़ियाँ – तत्कालीन सेना के युद्ध पर निकलने का वर्णन :

हुकुम फेरि सैयद ने दीन्हो, लश्कर कमरबंद हुइ जाय
तोप दरोगा को बुलवा कर, सोने कड़ा दिया डरवाय
जितनी तोपें हैं महुबे में, सब चरखिन पे देव चढ़ाय
टेरि दरोगा हाथिन वाले, कलंगी पट्टी दिए बंधाय
भूरा मकुना और इकदंता, सिगरे हाथी किये तैयार
बोलि दरोगा घोड़न वाले, कुण्डल दिए कान में डार
बूढ़े दुर्बल रोगी घोड़े, करना एक नहीं तैयार
जितने घोड़े बड़ी रास के, तिनको देव दहाना डार

ऊदन बोलत भे लश्कर में, हमरी सुनो सिपाही भाय
जिन्हें पियारी घर-तिरियाँ हों, अपनी तलब लेंय घर जाँय
कठिन मवासी गढ़ माड़ौ है, पहिले तुमको दिया बताय
ता पर ज्वाब दिया सिपहिन ने, मानो सही उदयसिंह राय
रोम-रोम में गाँसी बेधे, काटे अंग-अंग तलवार
पाँव पिछारे को रखिबे ना, खायो नमक चंदेला क्यार
शूर सिपाहिन की बातें सुनि, बोला उदयसिंह सरदार
श्याबस-श्याबस ओ रजपूतो, माड़ौ रखियो धर्म हमार

बाजो डंका जब लश्कर में, क्षत्री सबै भये हुशियार
झीलम बख्तर पहिन सिपाहिन, कम्मर बाँधि लीनि तलवार
रन की मौहर बाजन लागी, रन का होन लाग ब्योहार
सबसे पहले रस बेंदुल पर, ऊदल फांदि भयो असवार
घोड़ा करेलिया आल्हा बैठे, मलखे चढ़े कबुतरी जाय
घोड़ी सिंहन की पीठी पर, चाचा चढ़े तिलंसी राय
धांधू बेटा बिन्दुमती का, गजगाहन पर हुआ सवार
ब्रह्मा बैठा हरनागर पर, अर्जुन पंडा का अवतार
घोड़ा मनुरथा की पीठी पर, सगुनी चढ़ा महोबे क्यार
देवल माता पलकी बैठी, जिसमें पचरंग पड़ा अहार

कूच के डंका के बाजत खन, लश्कर चला महोबे क्यार
आगे छकड़ा बारूदन के, पाछे तोपन की कतनार
ताके पाछे हाथी चलि भे, छोटे पर्वत की उनहार
चले बछेड़ा महुबे वाले, और रथ-रब्बा चले पिछार
बजत पैंजना हैं घोड़न के, जंगा बजत साँड़ियन क्यार
घंटा बाजत गल हाथिन के, चमके कौंधा सम तलवार
गोल तिलंगन के निरखत हैं, हाहाकारी शब्द सुनाय
पहिया मचकत हैं जरबिन के, धरती खात दरारा जाय

नगरी-नगरी भागन लागे, सिरकीबंद गये घबड़ाय
उखरि पौंषरा गए कस्बन के, भारी शहर गए दहलाय
मुहर कटोरा पानी हो गयो, सूखे पड़े कुंआ और ताल
आगूँ फौजें पानी पी जाएँ, पीछे पड़ जाय नीर-अकाल
केहर गूड़ छोड़कर भागे, और मुँह बाये फिरत सियार
भूल चौकड़ी गयी हिरनों की, पंछी उड़ गए गगन मंझार
डोली धरा शेष अकुलाने, सहि नहीं सके भूमि को भार
कहूँ चबेना से दिन काटे, कतहँ खाँय भौरिया डार
सत्रह दिन की मंज़िल करि के, दाबो माड़ौ का मैदान

See a recital of this entire episode by Shri Lallu Bajpai at YouTube: Part-1 and Part-2.

(रजनीश तिवारी द्वारा संकलित )

(आल्हा, अर्थात आल्ह-खण्ड, के मूल रचयिता जगनिक माने जाते हैं जो राजा परिमाल के दरबार में थे। समयांतर में उनकी मूल रचना खो गई है और अब अनेकों प्रकारों से अनेकों “अल्हैतों” द्वारा सुनाई जाती है। आल्हा की यहाँ प्रस्तुत पंक्तियों का स्रोत: पहलवानी आल्हा: माड़ौ की लड़ाई – बाप का बदला, (लेखक: नम्बरदार कुंवर अमोल सिंह भदौरिया, प्रकाशक: श्रीकृष्ण पुस्तकालय, कानपुर, सन १९९६ ईस्वी, पृ. १३-१५); मामूली संपादन के साथ साभार उद्धरित। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के एम. रहमान के एक लेख के अनुसार, विसेंट स्मिथ माड़ौ को नर्मदा नदी के आसपास मिर्जापुर का दक्षिणवर्ती विजयपुर संभावित करते हैं। यहाँ जम्बे के किले का खंडहर अभी तक मौजूद है। ग्रियर्सन माड़ौ को धार का एक नगर मानते हैं, जो महोबा से सीधी लाइन में तीन सौ पचास मील के फासले पर है। गाथा में महोबा से माड़ौ सोलह दिन का रास्ता संकेतित है।)

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