Tag Archives: हिन्दी पद्य

रात गई फिर दिन आता है…

रात गई फिर दिन आता है इसी तरह आते-जाते ही, ये सारा जीवन जाता है…

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गर्मी की दोपहर

सामने खड़ी दस मंज़िला इमारत। हर घर की बाल्कनी से झाँकता कम से कम एक टीवी अन्टेना। लेकिन हर घर चुप खामोश इतना कि लगे इमारत जैसे ख़ाली हो!

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रावण के राज में

मेरी नन्ही-सी बिटिया मुनमुन, अक्सर विचारों को लेती है बुन, मैंने उसे रावण का पुतला दिखाया,

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रेल के डिब्बे में रामराज

डिब्बा था रेल का, तूफ़ान मेल का डिब्बे में डाकू थे डाकुओं के हाथों में, बंदूकें-चाकू थे पचहत्तर यात्री थे यात्रियों में एक थे, खद्दर के कपड़ों में दिखते थे नालायक, लेकिन विधायक थे

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फिसल गये हैं मोटूमल

फिसल गये हैं मोटूमल मोटा पेट करे थल-थल दिन निकले से मुँह चलता है जैसे चलती चक्की नहीं पढ़ाई, नहीं लिखाई ये हैं बक्की-झक्की चाट, मलाई, कुल्फी देखी जायें वहीँ मचल (नोट: ये कविता वर्षों नहीं बल्कि दशकों पहले कभी … Continue reading

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