डिब्बा था रेल का, तूफ़ान मेल का
डिब्बे में डाकू थे
डाकुओं के हाथों में, बंदूकें-चाकू थे
पचहत्तर यात्री थे
यात्रियों में एक थे, खद्दर के कपड़ों में
दिखते थे नालायक, लेकिन विधायक थे
जबसे चढ़े थे, बोले ही जाते थे
वर्तमान सरकार को, सर्वोत्तम बताते थे
डाकुओं को देखकर, यात्री सब डर गये
विधायक नहीं डरे
सीट पर खड़े हुये
भयभीत यात्रियों को, कर के संबोधित
देने लगे भाषण –
डरे हुये भाइयो! भयभीत बहिनो!
डाकुओं को देखकर आप मत डरिये
डिब्बे में आपके आये हैं, अतिथि ये
अतिथि का यथोचित सम्मान करिये!
बाल्मीकि डाकू थे
चोर थे कन्हैया जी
माखन चुराते थे
मटकियाँ फोड़ कर, मुरली बजाते थे
भारत की महिमा है
पावन है परंपरा
कौन जाने इनमें भी, हो कोई बाल्मीकि
हो कोई कृष्ण जी
मैं वंदन करता हूँ
अपने इस डिब्बे में
आप सब की ओर से अभिनंदन करता हूँ
विधायक जी हाथ जोड़, डाकुओं से बोले कि,
आप लोग लूटिये!
यात्रियों से बोले कि,
आप लोग लुटिये!
डाकू लगे लूटने
सोने के आभूषण, घड़ियाँ कलाई की
जेबों के नोट सब
डाकुओं के नेता के, चरणों पर अर्पित थे
बलिहारी शासन की
दु:शासन के आगे पांडव समर्पित थे
रो पड़े यात्री, बिलखी कुछ महिलायें
विधायक ने चुप किया, सबको दे आश्वासन –
रोओ मत बंधुओ, बिलखो मत माताओ!
पिछले स्टेशन पर, थे जो पुलिसमैन
अगले पर आयेंगे
किस-किस का क्या गया, लिख कर ले जायेंगे
चुप हुये यात्री, सुन कर यह आश्वासन
लोग सब ग़ुमसुम थे
आहें भी भरते तो भीतर ही भरते थे
साँसें तक लेने में बेचारे डरते थे
सहसा विधायक चुप्पी को तोड़कर
मुस्कुरा कर कह उठा –
जंगल में रेल थी, तब जंगल में मंगल था
डाकू घुसे रेल में, अब मंगल में जंगल है
कैसा सन्नाटा है, कैसा शुभ लग्न है
अद्भुत एकांत है, वातावरण शांत है
न कोई पुकार है, न कोई आवाज़ है
लगता है जैसे, यहाँ केवल यमराज है
लूट-धन बटोर कर, डाकू उतर पड़े
विधायक भी डाकुओं के साथ उतरने लगा
यात्रियों ने क्रोधित हो उसको पकड़ लिया
खद्दर के कपड़ों को कर दिया तार-तार
कुर्ते को खींचा तो,
कुर्ते की जेब में छिपा था रिवाल्वर
कुर्ते के नीचे छिपा हुआ चाक़ू था
चीख पड़े यात्री सब –
“विधायक के वेष में
वह भी एक डाकू था!”
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रचना: ओमप्रकाश ‘आदित्य’
पुस्तक: अस्पताल की टाँग (पृष्ठ: 70-72, डायमंड बुक्स, संस्करण 2004, ISBN: 81-288-0953-9, दिल्ली )