आलसी चेला

मौसम था बरसात का, भादौं आधी रात का
आश्रम श्रम से दूर था, सुनो वहाँ की बात

सुनो वहाँ की बात, जलेबी दूध पराठे
खा पी करके गुरु, ले रहे थे खर्राटे
आँख खुली तो, चेले को आवाज़ लगायी
क्यों रे छोरे, बत्ती अब तक नहीं बुझाई?

चेला अड़ियल आलसी, गुरु अजगरानंद
कहने लगा कि मान्यवर, आँखें कर लो बंद
आँखें कर लो बंद, समस्या स्वयं सुलझेगी
मुँह ढक कर सो जाओ, समझ लो बत्ती बुझेगी

गुरु बोले ये तो बतला, आलस के चरखा
बंद हो गई है, या अभी हो रही है बरखा?
चेला बोला, गुरूजी बाहर से आई है अपनी बिल्ली
हाथ फेरकर देखो, सूखी है या गिल्ली
गिल्ली है तो जानिये, चालू है बरसात
सूखी है तो बंद है, ख़त्म हो गई बात!

ख़त्म हो गई बात, न आती तुझको लज्जा!
काम हरेक टाल रहा, चल बंद कर दे दरवज्जा
दो काम मैंने कर दिये गुरूजी, अब सोने दीजै
काम तीसरा भगवन, आप स्वयं कर लीजै


रचना: अज्ञात
स्रोत: ओशो रजनीश के एक प्रवचन से साभार उद्धृत

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