निरादरणीय दल-बदलू जी,
बार-बार धिक्कार
सुना है आपने दूसरा दल भी छोड़ दिया
अपना भाग्य फोड़ा या उनका फोड़ दिया
लोग व्यर्थ ही संशय करते हैं कि आप कैसे हैं
किंतु आप क्या करें
आपके संस्कार ही ऐसे हैं
अस्पताल में पैदा होते ही आप
उछल कर बगल की चारपाई पर जा चढ़े थे
वह तो वहाँ नर्स और डॉक्टर खड़े थे
नहीं तो आप जड़ से ही स्वयं को बदलते
एक के यहाँ जन्मे, दूसरे के यहाँ पलते
हे परिवर्तन-प्रेमी,
कल तक आप एक अडिग चट्टान थे
आज पथ के रोड़ों में जा मिले
अपनी पार्टी के गरीब गधों को छोड़कर
तेज दौड़ने वाले घोड़ों में जा मिले
आप का क्या भरोसा
घोड़ों को छोड़कर कल आप
खच्चरों में जा मिलेंगे
आप तो सच्चे पद-प्रेमी हैं
मच्छर यह कहें कि ‘आओ, यह रही कुर्सी’
तो आप मच्छरों में जा मिलेंगे
धर्मात्मा जी,
गीता का यह ‘वासांसि जीर्णानि’ श्लोक
आपने कब पढ़ डाला
सम्पूर्ण जीवन में एक काम की चीज पढ़ी
उसके ही अर्थ का ये सार निकाला
शरीर और वस्त्र बदलने के स्थान पर दल बदल गये
कुर्सी की भूख में कृष्ण जी की गीता को ही निगल गये
हे बहुरूपिये,
कभी एकांत में आपको शर्म तो अवश्य आती होगी
पर क्या करे बेचारी,
कुर्सी पर सर पटक कर चली जाती होगी
सोते समय आप उधर थे
उठते समय आप इधर हैं
आप तो एक घूमते हुये लट्टू हैं
कोई बता नहीं सकता कि आपका मुँह किधर है
हे परम देशभक्त,
आप देश की भलाई के लिये
कितना कष्ट उठा रहे हैं
चैन से बैठ कर न पी रहे हैं
न खा रहे हैं
जब देखो भागे जा रहे हैं
आप एक सच्चे राष्ट्रनेता का दायित्व निभा रहे हैं
आपने देश के लिए बहुत कुछ किया है
अपना सर्वस्व ही देश को दे दिया है
मेरा विनम्र निवेदन है कि
आप देश की जनता के लिए
इतना और कर जाइये
शीघ्र ही किसी गंदे नाले में डूब जाइये
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रचना: अज्ञात
स्रोत: ओशो रजनीश के हिंदी प्रवचनों से संकलित ऑडियो कैसेट “हास्य कवितायें” से साभार उद्धृत