राग : शुभ्रा

हमारे मित्र मंदार पुरंदरे अपने  इस रोचक और पठनीय लेख में आशा करते हैं  कि उन्हें एक  बरफ़ लाने वाली धुन मिलेगी; एक ऐसा राग, जो एक “ग्लोबल कूलिंग” मंत्र जैसा काम करे और इसी बहाने मौसम के सुर-ताल को ठीक कर दुनिया भर के छोटे बच्चों की आँखों में थोड़ी सी ख़ुशी लाये। ये सारी चीज़ें उन्हें अभी फ़िलहाल मिली तो नहीं है लेकिन खोज अवश्य ज़ारी है, और उस धुन का, उस राग का नाम भी पक्का किया जा चुका है। उसका नाम होगा राग शुभ्रा। सभी रंगों को अपनाने वाला सफ़ेद रंग। जब तक मंदार भाई की यह खोज चालू है, तब तक के लिये इंडिया वर्ल्ड ऑन दि नेट की ओर से सभी पाठकों को क्रिसमस और नये वर्ष  २०१४ की शुभकामनायें और मंदार को सफलता की मंगलकामनायें।

समूचे विश्व में मनाए जानेवाले भिन्न-भिन्न त्योहार मानव की उत्सव मनाने की सहज प्रवृत्ति से जुड़े हैं और मौसम से, प्रकृति से, इनका एक अटूट रिश्ता है। गणेशोत्सव के आख़िरी दिन गणेशजी को विदा देते समय, और कृष्ण जन्माष्टमी के दिन कृष्ण का स्वागत करते समय बारिश न हुई हो ऐसा शायद ही देखने को मिला है। ऐसे मौक़ों पर ख़ूब बरसने वाली बारिश सिर्फ़ बारिश न रहकर मानो भगवान् की मौजूदगी या उसका प्रसाद बन जाती है।  बसंत पंचमी का नाम लेते ही रंग बिरंगी फूलों से भरी प्रकृति दिखाई देने लगती है। और ऐसे कई उत्सव हैं जो प्रकृति से ठेठ जुड़े हुए हैं। उनमे प्रकृति का सौंदर्य , उसका संगीत , उसकी महक सबकुछ भरा है।

खैर, यह तो हुई उत्सवप्रिय भारतीय उपमहाद्वीप की बात। क्रिसमस यूरोपीय देशों में मनाए जाने वाला एक बड़ा उत्सव है और उसी से जुडी है झिरमिर गिरती बरफ़। सफ़ेद रंग से ढकी बरफ़ की चोटियाँ, सड़कें, कारें, बागान, पेड़, डालियाँ, इमारतों के छत पर लदी बरफ़ की परतें, और चारों ओर बिखरते सफ़ेद, शुभ्र  हिमकण। शुभ्र शान्ति और स्तब्धता। क्रिसमस और बरफ़ का कुछ एक स्वाभाविक रिश्ता है। जिन लोगों को आज तक इसका प्रत्यक्ष अनुभव करने का मौका नहीं मिला है, वे भी इसके बारे में जानते हैं।  आज तक न मालूम कितनी फ़िल्मों में हम ऐसे चित्र देख चुके हैं । सांता क्लॉज की वेशभूषा में घूमते लोग, सुंदरता से सजाया गया क्रिसमस का पेड़, खिड़की के शीशों से दिखाई देते हवा में हलके से तैरते, मंद-मंद हिलोरें लेते श्वेत हिमकण। और क्रिसमस हमारे लिए कुछ ऐसे ही चित्रों के साथ जुड़ा है। इसके साथ क्रिसमस के ख़ास संगीत की भी हम कल्पना कर सकते हैं।

भौगोलिक विविधता से भरे भारतीय जीवन में बरफ़ सिर्फ़ उत्तरी भागों में मिलती है और अमरनाथ का प्राकृतिक शिवलिंग, हिमालय की बर्फीली तीर्थयात्राएँ, शिमला की बरफबारी हमेशा सुर्ख़ियों में रही हैं। हमारे साहित्य में बरफ़ का मिलना शायद दुर्लभ है लेकिन उसकी बिलकुल अनुपस्थिति भी नहीं है।मसलन तीन हिंदी कविताएँ याद आ रही हैं, तीनों कवि हिंदी के प्रतिभाशाली कवि रहे हैं – एक डा. हरिवंशराय बच्चन की: “चोटी की बरफ़”, दूसरी बाबा नागार्जुन की: “बरफ़ पड़ी है” और अज्ञेय जी की: “चुप-चाप नदी”। यह चुप-चाप सरकती नदी और उसमें चुप-चाप झरती, गलती हुई बरफ़ हाइडेलबर्ग की है। मराठी कविता का एक प्रमुख और अनूठा नाम है माणिक गोडघाटे यानी ग्रेस -उन्होंने तो ख़ासकर “बर्फाच्या कविता” यानी बरफ़ की कविताएँ लिखी हैं जो इंग्रिड बर्गमन को समर्पित काव्यसंग्रह “सन्ध्याकाळच्या कविता” में हम पढ़ सकते हैं। मराठी के एक प्रतिभाशाली नाटककार श्री महेश एलकुंचवार की नाट्यत्रयी (triology) के आखिरी हिस्से में अभय अपने भाई को विदेश के जीवन के बारे में और उसकी जीवन-संगिनी के साथ उसके रिश्ते के बारे में जब बताता है तब यह बरफ़ पूरे नाटक की रेतीली तथा गर्मी और अकाल से भरी पार्श्वभूमि पर एक ठंडी सी खरोंच खींचती है। ऐसे कुछ ही गिने चुने उदाहरण मुझे याद आते हैं।

पिछले ज़माने की फ़िल्मों में दिलीप कुमार, देव आनंद जैसे हीरो रहे, उसके बाद अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र आदि की बारी आयी और आजके ज़माने में यह जगह अनेक खानों को मिल गयी है, लेकिन सच कहें तो हज़ारों साल से “मॉनसून” ही हमारा सच्चा हीरो रहा है। बारिश जैसे हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग है कुछ उसी तरह बरफ़ यूरोपीय जीवन का अभिन्न हिस्सा है। यूरोप के अनेक देशों में सालभर बरफ़ पायी जाती है। यहाँ के साहित्य में, गानों में, कविताओं में ख़ूब बरफ़ मिल सकती है। पोलिश कविता में इसकी कोई कमी नहीं है। उदहारण के लिए जाने-माने पोलिश कवि आदाम मित्स्किएविच की कविता – “Śniła mi się zima” (श्निउआ मी शे जिमा) यानी “सर्दियों का सपना” को ही लीजिए। यह कविता जब भरी सर्दियों में यानी दिसंबर, जनवरी, फरवरी में पढ़ता हूँ तब इसका मज़ा और बढ़ता है। इस कविता में धीरे-धीरे गिरती बरफ़ को, और धीमे-धीमे फैलती ठण्ड को गहरे से महसूस करता हूँ। दूसरे एक प्रतिभाशाली पोलिश कवि बोलेसलाव लेश्मियान की अनेक कविताओं में आपको यह बरफ़ मिलेगी। बड़ों के साहित्य में बरफ़ अनेक मायने लेकर आती है तथा बच्चों के साहित्य में, उनके गानों में, कविताओं में बरफ़ का गिरना, बरफ़ में खेलना, उसमे दौड़ना, बरफ़ के पुतले बनाना ऐसी चीज़ों में भरपूर आनंद भरा है।

हमारे बच्चे भी इसमें पीछे नहीं है। अब पिछले हफ़्ते की ही बात लीजिए। हमारा एक साढ़े चार साल का बेटा बुख़ार के कारण बीमार था। लगातार चार दिन आराम करते-करते उकता गया था। चौथे दिन सुबह ही बरफ़ गिरने लगी थी और वह झट से खिड़की से नाक चिपकाए खुश होकर बरफ़ को निहारने लगा। ३८ डिग्री बुखार होने के बावजूद हठ करने लगा कि मुझे बरफ़ में खेलने बाहर ले चलो। कठिन से कठिन तपश्चर्या करके मैं दुनिया के सारे ईश्वरों को प्रसन्न भी कर लूँ, लेकिन बीवी के सवालों के पोलिटिकली ठीक-ठीक जवाब देना, बीमार बच्चों एवं बूढ़ों को मनाना, उनको दवाई लेने के लिए राजी करना यह मेरे बस में नहीं है। उसको समझाने में बड़ी मेहनत करनी पड़ी। “कल तक अगर ठीक हो जाएगा, तो तुझे बरफ़ में स्लेज पर घुमाऊँगा” ऐसा वादा करने के बाद दवा लेकर सो गया। आश्चर्य की बात है कि दूसरे दिन सुबह बिलकुल चुस्त दुरुस्त होकर उठा, अब इसमें दवाई का कितना हाथ था और बरफ़ में खेलने की आतुर इच्छा का कितना, यह बताना मुश्किल है। लेकिन मौसम अब बदल चुका था। हल्की सी धूप और निरभ्र आसमान। कल हुई बरफ़बारी का नामोनिशान तक नहीं था। बच्चे को घोर निराशा हुई वह बार-बार पूछने लगा बरफ़ कहाँ गयी? बरफ़ कब गिरेगी?  बरफ़ के लिए तरसती उसकी आँखों को देखकर मुझे उस पर तरस आने लगा। लेकिन कोई क्या करे? आधा दिसंबर बीत चुका है, क्रिसमस के लिए कुछ ही दिन बाकी हैं और बरफ़ गिरने के आसार नज़र नहीं आ रहे हैं। लेकिन बरफ़ गिराना मेरे हाथ में तो नहीं है!

ज्यों ही मेरे मन में यह ख़याल आया त्यों ही दूसरा ख़याल भी उभरा। भाई, चाहूँ तो मैं बारिश करा सकता हूँ। मेरे पास तो जयंत मल्हार, रामदासी मल्हार, मेघ मल्हार, मियां की मल्हार, ऐसे मल्हार हैं, मेघ है। बारिश के लिए तो ऐसे राग ज़रूर हैं। बारिश हमारी ज़रुरत है और यही ज़रुरत आगे जाकर गानों में, रागों में, इतना ही नहीं होम-हवन में भी, प्रार्थना का रूप लेती है। बारिश के मुद्दे पर विरोधी राजनीतिक पार्टियाँ भी इकट्ठी हो जाती हैं। बरफ़ की किसे ज़रूरत है? शायद सिर्फ़ प्रकृति को, आदमी को कहाँ बरफ़ की ज़रुरत! शायद इसीलिए बरफ़ के लिए, यानी बर्फ़बारी हो इसके लिए कोई भी राग नहीं बना होगा । मैंने सोचा कि अगर नहीं है तो खोज लूंगा, नया बना दूंगा। नए राग के सृजन के लिए बड़ी साधना चाहिए वह तो मेरी है नहीं हालांकि एक  राग-संगीत प्रेमी होने के नाते उसकी एक तस्वीर बनाने की कोशिश तो कर ही सकता हूँ।

अब मल्हार का मज़ा यह है कि उसमें शुद्ध और कोमल दोनों निषाद बड़े काम के हैं। दो निषाद – जैसे नि(कोमल) ध नी(शुद्ध) सा – की यह छोटीसी स्वरलिपि न जाने कितने तरह के बादलों को दिखाती है! काले घने बादल, हल्की सी वर्षा करते बादल, मूसलाधार वर्षा करते बादल, आसमान पर मंडराते हुए बादल। तो बरफ़ के अलग-अलग रूपों को समर्थता से प्रस्तुत करने वाली स्वरलिपि कौन सी होगी? या फिर ‘कामोद’ का सहारा लिया जाए? नहीं तो ‘मेघ’ में ही उन हिमकणों को ढूंढा जाए। बरफ़ के लिए कौनसा थाट ठीक रहेगा? वैसे बरफ़ किस तरह का भाव लाती है? जब यह सोचता रहा तो अचानक मुझे लगा कि आज तक का मेरा अनुभव है कि हर बार अच्छी बर्फ़बारी होने के बाद पूरी प्रकृति शांत और निस्तब्ध सी हो जाती है, नीचे बरफ़ और ऊपर सूरज हो तो मन काफ़ी प्रफुल्ल रहता है, अब ऐसी भावस्थिति कौन से राग में, कौन से थाट में मिलेगी? या शायद अभोगी की तरफ़ जाना पड़े! सफ़ेद और सुनहरे रंग को कौन से सुर दिखा सकते हैं? दिनभर गिरी बरफ़ पर सूरज के सुनहरे किरण जब पड़ते हैं, या रात के समय उस पर जब चाँद और तारे चमकते हैं वह चित्र, वह भावस्थिति किस स्वरमेल में ढूँढूँ? षड्ज-माध्यम भाव या षडज-पंचम, इसके वादी-संवादी कौनसे होंगे? और आम जीवन में जाति-व्यवस्था के निर्मूलन का पक्षधर हूँ मैं लेकिन रागों की जाति ही उनका व्यक्तित्व दर्शाती है, जैसे ओडव-ओडव, ओडव-षाडव आदि। बरफ़ का व्यक्तित्व कौनसी जाति में अच्छा दिखेगा? बस, ऐसे ही सवालों में उलझा हुआ हूँ। ये सारी चीज़ें तो अभी तक मिली नहीं है लेकिन उस धुन का, उस राग का नाम पक्का है। उसका नाम होगा राग शुभ्रा। सभी रंगों को अपनाने वाला सफ़ेद रंग।

एक तो यह ग्लोबल वार्मिंग है जिसकी वजह से दुनिया के मौसम का सुर-ताल बिगड़ा हुआ है। आशा करता हूँ ऐसी बरफ़ लाने वाली धुन मिलेगी तो एक “ग्लोबल कूलिंग” मंत्र जैसा काम करेगी और हो न हो इसी बहाने मौसम के सुर-ताल को ठीक कर दुनिया भर के छोटे बच्चों की आँखों में थोड़ी सी ख़ुशी लाएगी।  फिलहाल इसी आशा में क्रिसमस और नए साल का स्वागत करता हूँ। अगले क्रिसमस तक धुन तैयार हो जानी चाहिए।  तब तक बनी-बनाई बर्फीली धुन – Let it snow – का ही आनंद लीजिए। मेरी तरफ़ से क्रिसमस की बधाइयाँ और नया साल मुबारक़।

—-

लेख: मंदार पुरंदरे (पोज़नान, पोलैंड, २१.१२.२०१३) 

Authored by: Mandar Purandare, Poznań (Poland), 21.12.2013

This entry was posted in Hindi | हिन्दी, Literature and tagged , , , , , , , , , . Bookmark the permalink.