न मंदिर में सनम होते, न मस्जिद में खुदा होता
हमीं से यह तमाशा है, न हम होते तो क्या होता
न ऐसी मंजिलें होतीं, न ऐसा रास्ता होता
संभल कर हम ज़रा चलते तो आलम ज़ेर-ए-पा होता
घटा छाती, बहार आती, तुम्हारा तज़किरा होता
फिर उसके बाद गुल खिलते कि ज़ख्म-ए-दिल हरा होता
बुला कर तुमने महफ़िल में हमको गैरों से उठवाया
हमीं खुद उठ गए होते, इशारा कर दिया होता
तेरे अहबाब तुझसे मिल के भी मायूस लौट गये
तुझे नौशाद कैसी चुप लगी थी कुछ कहा होता
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नज़्म: नौशाद / Nazm (poem): Naushad
स्रोत: http://www.bestghazals.net/search/label/Naushad
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शब्दार्थ
आलम = संसार (अन्य अर्थ = दशा)
ज़ेर = नीचे (underneath)
पा = चरण, पैर
ज़ेर-ए-पा = पैरों तले
तज़किरा = उल्लेख (mention)
अहबाब = मित्र, दोस्त
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Na Mandir mein sanam hote, na masjid mein khuda hota
Hameen se yah tamasha hai, na ham hote to kya hota
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