शहरी जेबकतरा

बस में अपनी जेब कटती देख,
यात्री ने शोर मचाया
जेबकतरा उसे पकड़ कर थाने लाया
और थानेदार से बोला,
हुज़ूर, यह आदमी शहर में अव्यवस्था फैलाता है
हमें शांतिपूर्वक जेब नहीं काटने देता
गँवारों की तरह चिल्लाता है
थानेदार यात्री से बोला,
क्यों जी, दिल्ली में नये आये हो क्या,
नये नहीं आये तो फिर,
भाँग खाये हो क्या
इस शहर के क़ायदे-क़ानून नहीं जानते
जेबकतरों से अकड़ते हो
अपनी औकात नहीं पहचानते

यह संभ्रांत जेबकतरा,
बिना तुम्हारे शरीर को आघात पहुँचाये
अपना काम कर रहा था
इसे धन्यवाद देने की बजाय, चिल्लाते हो
गांधी के देश में
शांति और अहिंसा का मज़ाक उड़ाते हो
अगर ये तुम्हें छुरा घोंप देता,
घोंट देता तुम्हारा गला
कर लेता अपहरण
तब क्या कर लेते तुम?
और क्या कर लेते हम?
ख़ुद अपने ऊपर चाकू चलवाते
और दोष पुलिस को लगवाते
फिर ये पढ़े-लिखे जेबकतरे
जेब न काटें तो कहाँ जायें
क्या करें? भूखे मरें?
कुँयें में पड़ें? इलेक्शन लड़ें?
डिग्रियों को चबायें?
सबके सब तो नेता नहीं बन सकते
भाईजान, चिल्लाने से आपदायें नहीं टलतीं
इन्हें आराम से सहना सीखो
शहर में आये हो तो,
शहरियों की तरह रहना सीखो
मेरा मुँह क्या देख रहे हो
चलो बगल के कमरे में जाओ, और
जेबकतरे जी से चुपचाप अपनी जेब कटवाओ

रचना: अज्ञात
स्रोत: ओशो रजनीश के हिंदी प्रवचनों से संकलित ऑडियो कैसेट „हास्य कवितायें“ से साभार उद्धृत

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