शहर की एक महिला ने हिम्मत दिखाई,
वह प्रौढ़ों को शिक्षित करने के लिये गाँव में आई
एक दिन यूँ ही बैठी-बैठी सुस्ता रही थी
और एक गीत गा रही थी
” ओ सावन के बदरा,
” आये नहीं हमारे सजना, अबकी नहीं बरसना ”
गीत के दर्द भरे बोल लोगों तक पहुँचे
लोग मुखिया के पास पहुँचे
मुखिया जी शिक्षिका के पास दौड़े
और हाथ जोड़े
कि बस इतना सा काम
हमें क्यों नहीं बतातीं ?
हम आपके सजना को
कान पकड़ के ले आते
शिक्षिका पहले तो हड़बड़ाई
फिर मुखिया को एक डाँट पिलाई
कि ये क्या बला है ?
मेरा सजना आये या न आये
ये मेरा निजी मामला है
मुखिया जी बोले
भाड़ में जाये आपका सजना
हमें उससे क्या करना ?
पर सावन तो आपका निजी नहीं है
उससे क्यों कहतीं है कि अबकी नहीं बरसना ?
सूखा पड़ जायेगा
बच्चे हमारे भूखे मरेंगे
आपके सजना के बाप का क्या जायेगा ?
और हमें तो आपके सजना के
लक्षण अच्छे नहीं लगते
छह महीने हो गये आपको यहाँ रहते
उसने एक बार भी पता लगाया नहीं
कि आप जी रहीं हैं या मर गईं हैं
फिर आप उसकी चिंता क्यों कर रहीं हैं ?
यों अब तक नहीं आया
तो पता नहीं कब आयेगा ?
और फिर ऐसा सजना
आकर भी क्या कर लेगा ?
हमारी तो क़िस्मत ही ख़राब है
पिछले साल कीड़े फसल खा गये थे
इस साल आपका सजना मरवायेगा
नहीं हम ये जोखिम नहीं उठा सकते
हमें उसका पता दीजिये
या फिर आप अक्ल से काम लीजिये
आपके सजना का सावन से क्या लेना-देना ?
वो अपने हिसाब से आयेगा
इसको अपने हिसाब से बरसने दीजिये
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रचना: अज्ञात
स्रोत: ओशो रजनीश के हिंदी प्रवचनों से संकलित ऑडियो कैसेट “हास्य कवितायें” से साभार उद्धृत