Bharatendu Harishchandra’s (1850 – 1885) humorous satires composed as Hindi poems dealing with issues such as the importance of learning and respecting one’s own language (mother tongue), rampant corruption and other social vices, explotiation by the colonial rulers in the then India…
भारतेंदु हरिश्चंद्र की कुछ दिल रुझाने वाली रचनायें:
1.
भीतर-भीतर सब रस चूसै, हँसि-हँसि के तन मन धन मूसै
जाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि साजन? नहिं अंगरेज
2.
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन ।
पै निज भाषा ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।
3.
सब गुरुजन को बुरा बतावै, अपनी खिचडी अलग पकावै
भीतर तत्व न झूठी तेजी, क्यों सखी साजन नहिं अंग्रेजी
4.
चूरन अमल वेद का भारी, जिसको खाते कृष्ण मुरारी
मेरा पाचक है पचलोना, जिसको खाता श्याम सलोना
चना हाकिम सब जो खाते, सब पर दूना टिक्स लगाते
चूरन अमलें सब जो खावै, दूनी रिश्वत तुरन्त पचावै
चूरन सभी महाजन खाते, जिससे जमा हजम कर जाते
चूरन पुलिस वाले खाते, सब कानून हजम कर जाते
चूरन साहब लोग जो खाता, सारा हिन्द हजम कर जाता
5.
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देशन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।।
6.
विद्यार्थी लभते विद्यां, धनार्थी लभते धनम् ।
स्टारार्थी लभते स्टारम् , मोक्षार्थी लभते गतिं ।।
एक कालं द्विकालं च त्रिकालं, नित्यमुत्पठेत।
भव पाश विनिर्मुक्त: अंग्रेज लोकं संगच्छति ।।
[ अर्थात इससे विद्यार्थी को विद्या , धन चाहने वाले को धन , स्टार-खिताब-पदवी चाहने वाले को स्टार और मोक्ष की कामना करने वाले को परमगति की प्राप्ति होती है । जो प्राणी रोजाना ,नियम से , तीनो समय इसका- (अंग्रेज – स्तोत्र का) पाठ करता है वह अंग्रेज लोक को गमन करने का पुण्य लाभ अर्जित करने का अधिकारी होता है । ]
7.
साँच कहैं ते पनहीं खावैं, झूठे बहुविधि पदवी पावै
छलियन के एका के आगे, लाख कहौ एकहु नहिं लागै
भीतर होई मलिन की कारों, चहिये बाहर रंग चटकारौ
धर्म अधर्म एक दरसाई, राजा कैर सो न्याव सदाई
भीतर स्वाहा बाहर सादे, राज करहि अमले अरु प्यादे
अंधाधुंध मच्यौ सब देसा, मानहु राजा रहत विदेसा
ऊँच नीच सब एक ही सारा, पानहु ब्रह्म ज्ञान बिस्तारा
अंधेर नगरी अनबूझ राजा, टका सेर भाजी टका सेर खाजा
8.
सबके पहले जेहि ईश्वर धन बल दीनो
सबके पहले जेहि सभ्य विधाता कीनो
सबके पहले जो रूप रंग रस भीनो
सबके पहले विद्या फल जिन गहि लीनो
अब सबके पीछे सोई परत लखाई
हा हा भारत दुर्दशा न देखी जाई
जहँ भीम करन अर्जुन की छटा दिखाती
वहँ रही मूढता कलह अविद्या राती
अब जहँ देखहुँ तहँ दुखहि दुःख दिखाई
हा हा भारत दुर्दशा न देखी जाई।
9.
नई-नई नित तान सुनावै, अपने जाल में जगत फँसावै
नित-नित हमें करै बल-सून, क्यों सखि साजन? नहिं क़ानून
10.
सीटी देकर पास बुलावै, रुपया ले तो निकट बिठावै
ले भागै मोहिं खेलहिं खेल, क्यों सखि साजन? नहिं सखि, रेल
11.
मुँह जब लागै, तब नहिं छूटे, जाति मान धन सब कुछ लूटे
पागल करि मोहिं करै ख़राब, क्यों सखि साजन? नाहिं सराब
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रजनीश तिवारी द्वारा निम्न स्रोतों से संकलित
सौजन्य से / Sources:
http://www.lakesparadise.com/madhumati/show-article_1870.html
http://saahityaalochan.blogspot.com/2010/09/blog-post.html
http://sudhirraghav.blogspot.com/2008_07_01_archive.html
http://en.wikipedia.org/wiki/Bharatendu_Harishchandra
Hindi Wikipedia entry on Bharatendu Harishchandra
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