आँखों से दूर, सुबह के तारे चले गए

आंखों से दूर सुबहा के तारे चले गये
नींद आ गई तो ग़म के नज़ारे चले गये

दिल था किसी की याद में मसरूफ़
और हम शीशे में ज़िन्दगी को उतारे चले गये

अल्लाह रे, बेखुदी कि हम उनके रू-ब-रू
बे-अख़्तियार उनको पुकारे चले गये

मुश्किल था कुछ तो इश्क़ की बाज़ी का जीतना
कुछ जीतने के ख़ौफ़ से हारे चले गये

नाकामी-ए-हयात का करते भी क्या गिला
दो दिन गुज़ारना थे, गुज़ारे चले गये

जल्वे कहां जो ज़ौक-ए-तमाशा नहीं ‘शकील’
नज़रें चली गईं तो नज़ारे चले गये

नज़्म: शकील बदायूँनी / Nazm: Shakeel Badayuni
सौजन्य से: कविताकोष / Source: Kavitakosh.org

शब्दार्थ  / Meanings

मसरूफ़ = संलग्न, व्यस्त (busy, absorbed)
बे-अख़्तियार = बेइख़्तियार = अपने आप, असहाय (on its own, helpless)
ज़ौक = स्वाद, आनंद, शौक (taste, pleasure)

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