अर्पित है मेरा मनुज काय
भोजन हिताय, भोजन हिताय
व्रत का मैंने कर बायकाट
पूरी हलवे से उदर पाट
देखा भोजन में ही विराट
जितने जग में हैं सम्प्रदाय
भोजन हिताय, भोजन हिताय
रसगुल्ला हो या रहै साग
मुझको न किसी से है विराग
भोजन वन को मैं हूँ दवाग
जाता हो जीवन जाय-जाय
भोजन हिताय, भोजन हिताय
हे जन भोजन से मुंह न मोड़
मिल सके जहां, जितना, न छोड़
खाने में बन जा बिना जोड़
जीवन में जितने कर उपाय
भोजन हिताय, भोजन हिताय
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Arpit hai mera manuj kaay, bhojan hitaay
रचनाकार: बेढब बनारसी / Bedhab Banarasi
(कविवर मैथिलीशरण गुप्त की कविता ‘बहुजन हिताय’ की पैरोडी)
Source: kavitakosh.org